Friday, May 27, 2011

A Lesson In Hope

Today's Indian Express has the following article about sentencing of a rapist in the USA.
What has caught my attention and brightened up my day is the rare hope and positive outlook the rape victim Elizabeth Smart exhibits when she confronts the rapist with "I have a wonderful life now and no matter what you do, you will never affect me again...."  

(click on the picture to expand)

Rape is a heinous crime which crushes the soul and the mind, much more than the body. And it assumes such sinister proportions when it is inflicted not once, not twice but "near-daily" for almost an year in sub-human conditions.
If a girl can stare the rapist in the eye and proudly declare that she can not let her whole life be affected by what some pervert did to her once, it is a lesson in near-spiritual bravery, which needs to be applauded.         

Sunday, May 22, 2011

कितने पाकिस्तान - Kitne Pakistan

आज दूसरी बार कमलेश्वर का लिखा उपन्यास "कितने पाकिस्तान" पढ़ के चुका हूँ.

इसे जब मैंने पहली बार उठाया था तो शीर्षक से ऐसा लगा था कि विभाजन की त्रासदियों को बयान करती यह एक मार्मिक कहानी होगी. 

परन्तु असल में यह एक रोचक ताने बाने में गुंथा और बहुत पठनीय ऐतिहासिक शोध-कार्य है, जिसमें "पाकिस्तान" उन सभी देशों का प्रतीक है जो विश्व की भौगौलिक जमीन पर ही नहीं बल्कि मानस-पटल पर भी  नफरत की कलम से उकेरे गए हैं. यह उन सभी विचारधाराओं का प्रतीक है जो घृणा से संचालित होती हैं और विश्व को बांटती हैं. इस लिए इस का फलक बहुत विस्तृत है.

इस शानदार उपन्यास का नायक "समय" है, जो इतिहास की नदी को बहते, उसमें पात्रों को और घटनाओं को डूबते उतराते हुए देखता है - कानपुर का रेलवे स्टेशन, श्री राम द्वारा शम्बूक का वध, अहिल्या का बलात्कार,  मेसोपोटामिया का सम्राट गिलगमेश, आर्यों का भारत पर आक्रमण (?), कश्मीर, बोस्निया, बाबरी मस्जिद, जिन्ना, मौंटबेटन, अफगानिस्तान, औरंगजेब, टीपू, महाभारत, हिटलर, दारा शिकोह और न जाने क्या क्या और कहाँ कहाँ ........

परन्तु समय सिर्फ देखता नहीं, उस से एक कदम आगे बढ़ कर, इस विस्तृत कथा क्रम में चलते हुए, पाठकों की जानकारी के लिए उनसे और काल्पनिक घटनाओं और पात्रों से सवाल जवाब भी करता है, अनजाने घटनाक्रम खोलता है,  हर घटना के पीछे छिपे अन्याय और घृणा के कारणों का तार्किक विश्लेषण करता है और इस प्रक्रिया में कुछ स्थापित मान्याताओं पर प्रश्न भी उठाता है. 

और कथा शिल्प की सटीक दृष्टि से यह उपन्यास भी नहीं है. हिंदी के विद्वान् इस पर ज्यादा जानकारी रखते हैं पर मेरे विचार में यह एक ऐसा प्रयोग है जिसमे कहानी कहने की संभावनाएं एक उपन्यास से भी बहुत ज्यादा हैं.यह एक मंचित नाटक की तरह ज्यादा लगता है जिसमें समय के विस्तृत पटल पर व्यक्ति, देश, घटनाएं - सभी बारी बारी से आते हैं, अपनी बात कहते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं एक बार फिर बुलाये जाने के लिए. 

जैसे, बाबर के अदालती बयान की शुरुआत कुछ यूँ है  - 
"मेरा अल्लाह और तारीख गवाह है....मैंने कोई मंदिर मिस्मार नहीं किया और न मैंने हिंदुस्तान में कोई मस्जिद अपने नाम से बनवाई. इस्लाम तो हिन्दुस्तान में मेरे पहुँचने से पहले मौजूद था...क्या इब्राहीम लोधी खुद मुसलमान नहीं था जो आगरा के गद्दी पर बैठा हुआ था!...........
मैंने तो कभी तुलसीदास का नाम तक नहीं सुना, जिसने हिन्दुओं के राम को भगवान् बनाया. मेरे दौर में राम भगवान् थे ही नहीं तो मैं उनका मंदिर क्यूँ तोड़ता?.... अब सोचिये, उस वक़्त हिन्दुओं के कृष्ण को भगवान् और अवतार मंज़ूर किया जा चुका था. उनका जन्मस्थान मथुरा में था - मेरी राजधानी आगरा से सिर्फ पचास मील दूर....अगर मुझे तोडना ही होता तो मैं कृष्ण का जन्मस्थान न तोड़ता? भागा-भागा अयोध्या तक जाके राम का जन्मस्थान क्यों तोड़ता? क्योंकि राम तो भगवान् हुए तुलसीदास के बाद और मेरे सामने तुलसीदास बच्चा था. उसने रामायण मेरे मरने के बाद लिखी....
असल बात यह है अदीबे आलिया कि १८५७ की क्रांति के बाद अंग्रेजों की नीति बदली थी और उन्होंने मेरे वतन को मज़हब के नाम पर तकसीम करना शुरू कर दिया था. ...इसी के साथ बाबरनाम के वो पन्ने गायब किये गए जो इस बात का सबूत देते हैं  कि बाबर अवध में गया तो ज़रूर पर कभी अयोध्या नहीं गया!  

और ये है माउन्टबेटन से किये गए सवालों और जिरह में से कुछ:
'इस भारतवर्ष का पूरा इतिहास पलट जाइए और बताइये कि क्या कभी, किसी भी सदी में इसका विभाजन हुआ है?........तो फिर ऐसा क्यूँ हुआ कि अंग्रेजों की सौदागर कौम के हाथों, पांच हज़ार सालों पुराना यह महादेश अपने इतिहास में पहली बार विभाजन का शिकार हुआ! इसका कोई उत्तर है इस जहाजी माउन्टबेटन के पास?...
तुम कौन थे हमें आजादी देने वाले? तुमने हमारे देश को जीता नहीं था. दुर्भिसंधियों और षड्यंत्रों से अपने अधीन किया था...तब तुम्हारा खानदान शाही नहीं, लुटेरों और समुद्री डाकुओं को पालने वाला और शरण देने वाला अपराधी खानदान था!....
मैं इसी इतिहास लेखन के वारिस इन माउन्टबेटन साहब को, जो साबुत इंडिया के आखरी वाइसरॉय और विभाजित इंडिया के पहले गवर्नर जर्नल होने की अकड़ में जकड़े हुए हैं, मैं इन्हें इनके लुटेरे पुरखों विलियम हॉकिन्स और थोमस रो जैसो की असलियत दिखाना चाहता हूँ'.
तब अर्दली ने माउन्टबेटन को मुखातिब किया -
"जानते हैं आप! तब भारत के शहंशाह जहाँगीर के साम्राज्य के सामने आपके शाही खानदान की हैसियत एक गाँव के लम्बरदार से भी बड़ी नहीं थी! डच सौदागरों ने जब एक पौंड काली मिर्च का भाव पांच शिलिंग बढ़ा दिया था , तो तुम्हारी कौम के बनिए तिलमिला उठे थे...तब तुम्हारे बनियों ने सन 1559 में ईस्ट इंडिया ट्रेडिंग कंपनी बनाई थी. और तुम्हारा वह लुटेरा जहाजी विलिअम हॉकिन्स तुम्हारी तथाकथित महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम से लूटमार करने की इजाज़त लेकर चल पड़ा था.....
जब आप इस अदालत से वापिस जायें तो इस सच्चाई को तलाश कीजियेगा कि जिस वक़्त हिन्दुस्तान का मुगलिया निजाम अपने किसानों और काश्तकारों को राजा टोडरमल के चली आरही नीतियों के तहत मालिकाना हक और आजादी बक्श रहा था, उस वक़्त आपकी तथाकथित महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम, पुर्तगाली तस्करों के कंपनियों में पैसा लगा कर, अफ़्रीकी हब्शियों को दासों की तरह बेच कर खरीद-फरोख्त के बाज़ार में पैसा कमा रही थी!!


"कितने पाकिस्तान" निश्चय ही उन थोड़े से हिंदी उपन्यासों में से होगा जो विवेचन, शोध, विवेक और पठनीयता का अच्छा समागम हैं और इतिहास के पन्नों पर जमी काई को साफ़ कर के हमें हमारे इतिहास के सन्दर्भ में निर्देशांक तय करने में सहायक हैं. इस माने में यह नेहरु की "भारत - एक खोज" का समसामयिक हो सकता है पर उस से ज्यादा साहसी है और ज्यादा पठनीय भी. और हमारे अशांत समय के सवालों का जवाब तलाशने में ज्यादा मददगार भी.      

 आवरण पर दिए पुस्तक परिचय के अनुसार, "कमलेश्वर का यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है... इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद एक दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परंपरा अब ख़त्म हो".

मेरा भी यही मानना है कि अगर आप इस उम्मीद से वाबस्ता हैं तो यह उपन्यास आप को अवश्य पसंद आएगा.    

Sunday, May 08, 2011

Pakistan & America - A Case of Exploding Mangoes?

Conspiracy theorists can be assured of never being out of work if they stick to Pakistan as their subject.
Osama Bin Laden, arguably the world's most potent symbol of organized terror, has been finally taken out  by America in a covert operation deep inside Pakistan's army cantonment area of Abbotabad.
That America did not find Pakistan trustworthy enough to share with them the details of this mother-of-all-operations is a humiliation Pakistani establishment is finding hard to shrug off.
Did Pak Army know about Osama holed up in such a close proximity? Did they simply ignore it? Or did they actively abet his hiding? Is it a double-game Pakistan is playing, keeping both the fundamentalists and the Americans happy? Or is the Pak civilian establishment unaware of the agenda their Army is pursuing, which means that after all, it is again the forces (now in cahoots with the mullahs) who are running Pakistan? Does that mean America should not take Pakistan's servility for granted now?      
While theories and their rebuttals keep surfacing and this curious master-protege relationship which America and Pakistan share touches another low, I am suddenly reminded of a very brilliant book - A Case of Exploding Mangoes, which is an incisive satire on the Pakistan establishment (read Army), set in the time when General Zia-ul-Haq was the President of Pakistan. General Zia was only the third  Pakistani army chief who had overthrown a democratic government via a coup but he went a step ahead and appointed himself the President. It was in his regime that an enforced Islamization of Pakistani society started and the Army gained in their nuisance value like never before.  
"A Case..." is the debut novel by Mohammed Hanif, a one-time Pak Airforce pilot who left to pursue a journalistic career and is presently the BBC Urdu Service Chief in London.
The book has at its core the real incident of the plane crash which killed General Zia and the American ambassador among a few others and spawned quite a few conspiracies then.
Written in first person from the perspective of the protagonist Ali Shigri, a junior army officer, "A Case..." is a thriller, which weaves loose strands of all these conspiracies, and then some, whipping up a delightful read with a biting black humour and pithy dialogue.
Each of the conspiratorial strand is a real and distinct possibility, leaving the reader guessing and gasping. And as I said above, beneath the comic style lies a very realistic backdrop of power-hungry & paranoid army generals with a terrific power over the civil society of Pakistan in the name of democracy and sharia.  
With summers around, and mangoes in full supply, this is one book you should surely read, specially if you are an average Indian with even a little interest in our friendly neighborhood Pakistan. 
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