Monday, April 19, 2010

Letter to the Editor

The saga of IPL is getting murkier by the day. What else would you expect when you have such an illogically huge amount of money flowing around, hidden behind bordering on incestuous team ownerships and lately, after the entry of the quintessential villain - the politician, even if unwittingly.
Today's Delhi edition of Indian Express contains my following letter, which is what I think of IPL:


Devil in IPL details
 Apropos the editorial ‘A dash of sunlight’, the whole Tharoor-IPL saga bears out the fact that doomsday calls of cricket puritans over the IPL format are not just empty rhetoric. In the huge marketing carnival that the IPL is, the glorious sport of cricket has been well and truly laid siege to, by obscene amounts of money, lots of tamasha and fluff. And Tharoor is just a trickle — with the kind of money pouring in and the convoluted nature of team ownerships, we can remain assured that there is a deluge of political connections just waiting to be brought to the open.
— Rahul Gaur, Gurgaon
If you wish to visit the Express online to read this (or something else, of course), visit here.

Gulaal


It was almost a year back that my friend Madhav recommended Gulaal to me. He even provided a DVD, only to be kept aside and forgotten. This afternoon, I took it out to watch and have been regretting why I had not watched it earlier.
Gulaal is admittedly not a very path-breaking film in terms of its basic plot, which is student politics, but treated in the deft hands of Anurag Kashyap, it has turned out to be an eminently watchable film. It was especially interesting for me because its taut screenplay runs against an authentic Rajasthani back-drop, which I thoroughly relished.
The almost apologetic protagonist of the film is Dileep Singh (played by Raj Singh Chaudhary), a shy university student who in the start of the film is befriended by a fearless Rajput student Ran’sa i.e. Rananjay Singh (played excellently by Abhimanyu Singh) and is thrown in to a vortex of student politics and an underground Rajputana separatist movement headed by Dukey Bana (Kay Kay Menon). Parallel threads of filial animosity, love and deceit run to take the film to a fitting climax.
For the benefit of non-Rajasthanis, let me digress to explain that ‘sa’ is suffixed to any shortened name to indicate affection mixed respect. Kapil, for instance, can become Kap’sa. Bana is a term of respect for highly placed Rajputs.
The taut screenplay crackles with energy throughout, riveting the audience with all the twists and turns, laced with all emotions – love, deceit, friendship, loyalty, enmity in equal measure. As for the acting, Kay Kay is superb as always. Ransa is surely a find as he leaves the maximum impact. Deepak Dobriyal is also too good as is Mahie Gill. As it happens with Anurag Kashyap’s movies, the film is blessed with a very fine characterization, as a result of which each actor shines in the given role –howsoever small it might be.
But there are two stars which, to me, ride over and above everything else in the film. First is Piyush Mishra, who plays the slightly eccentric and musically inclined elder brother (Prithvi Bana) to the character of Kay Kay Menon. Second is his music score for the film.
As an actor, the effect Piyush has brought on to the screen for this role is just unbelievable. And as the song & music creator, he has outshone himself. Just to give to you a sample, here is the song I liked the most – Ranaji, which is typical of his character in the film – conveying great meaning in seemingly meaningless rambling.
Do go and watch the film.

Thursday, April 15, 2010

एक पत्र भगवान् के नाम - ४

पिछली किस्त से जारी


मौसम सूखा और गर्म है - गर्मी तन से ज्यादा दिमागों में है, गर्मी बाहर सड़कों पर है, नारे लगाती भीड़ की भिंची मुठ्ठियों में है, गरीब की फटी बनियान में है, गर्म खून में है जो रगों में बहता है.
प्रभु, आपके समय में क्या मौत ठंडी, शांत होती थी? अब बदलाव आ गया है - मौत का सन्नाटा अब ऐसा डरा देता है कि पूछो मत! भूख से मौत, प्रकोप से मौत, आदमी की मौत से भी गन्दी, बदबू मारती, आदमियत की और उसके सपनों की मौत!
अभी परसों अपनी दुकान पर आने वाले, यू.आइ.टी. ऑफिस के एक बाबूजी एक शेर सुना गए. मुझे तो समझ आया नहीं लेकिन लोगों ने बड़ी वाह-वाह की, शायद सिचुएशन पर फिट बैठ रहा है -
ख्वाबों में सलाखें हैं,
सलाखों में ख्वाब हैं.
आशा करता हूँ कि आप को समझ आया होगा. अगले पत्र में मुझे समझाइएगा - अभी यहाँ ऐसे ही फिट करने की कोशिश की है.
अच्छा हाँ - पत्र वैगरह कुछ भेजें तो पहले पता कन्फर्म कर लीजियेगा. असल में आज कल देश को कुछ बदल रहे हैं - काफी बड़ा हो गया है, संभलता नहीं है न, इसलिए रोटी के जैसे टुकड़े कर रहे हैं - अपनी अपनी रखो, अपनी अपनी खाओ. भाईचारा, देश की एकता जैसे नारे अब धुंधले पड़ गए हैं, सो बदलाव मांगता है. तो कहने का मतलब ये कि कब अपना मोहल्ला एक अलग देश बन जाए, कह नहीं सकते.
खैर, पत्र बंद करूंगा - अब आप भी बोरे होने लगे होंगे, टी.वी. पर मुझे चित्रहार भी देखना है. फिर समाचार भी आयेंगे - मुन्नू की माँ को नहीं दिखाता ये चीज़ें - फिर नयी नयी फरमाइश करती है - यह ला कर दो, वह ला कर दो. मैडम को नमस्कार कहियेगा, मुन्नू की माँ भी चरण स्पर्श कहाती है.
अगली बार पत्र थोडा entertaining लिखने की कोशिश करूंगा. स्टार टी.वी. के बारे में लिखूंगा, नाच गान के बारे में लिखूंगा, बड़े होटलों के बारे में, शो-रूमों के बारे में, फिल्मों के बारे में लिखूंगा. वादा करता हूँ प्रभु, अबकी असलियत नहीं लिखूंगा.
कोशिश करना पधारने की, फिर कोई नया अवतार लेने की - हमारी भी approach हो जाएगी ऊपर में और शायद, सपने बेचते नेता, आतंकित करने वाली पुलिस, थका देने वाली फाइलें, द्रौपदियों के चीर-हरण, बारूद की गंध, सिसकती हुई इंसानियत - कुछ तो रुकेगा.
अच्छा, चरण धोक
आपका भक्त
चन्दन दास पान वाला. 

समाप्त.

लीजिये, यह व्यंगय तो समाप्त है पर इस के पीछे भयावह बात यह है, जैसा के मेरे मित्र मनीष ने भी मुझसे कहा, कि १५ - २० सालों पुराना पत्र आज भी कितना कुछ प्रासंगिक है!! उफ़, कब कुछ बदलेगा!!

पहली किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - १
दूसरी किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - २
तीसरी किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - ३

Sunday, April 11, 2010

Use Me

"By using "Use Me"!!
बहरोड़ मिडवे (दिल्ली-जयपुर राजमार्ग) वालों का सफाई के प्रति इतना गहरा आग्रह देख कर अच्छा लगा लेकिन अनुप्रास अलंकार  की भी हद है यार.
Dustbin का प्रयोग किया जा सकता था, नहीं?  

Letter to the Editor

A recent issue of Outlook carried an essay by the celebrated essayist and writer Arundhati Roy on Naxals / Maoists of Dantewada and other hotspots of Chhatisgarh and AP. I suggest you read the essay - it does give you a good picture, though a slightly distorted one.
My take on this essay is carried in the following letter published in the latest Outlook dated April 19th 2010:

www.outlookindia.com: "Arundhati Roy has obviously expended considerable energy in reporting from ground zero, but I dare say that the essay tends to romanticise the Maoist cause. She has conveniently glossed over all the needless murders and incidents of looting, arson and vandalisation these ‘comrades’ have been committing in the name of justice and alternate governance. It also seems from the essay that the whole movement is now itself victim to the adage, ‘the more things change, the more they remain the same’. What with different departments and an elaborate hierarchy, the janatana sarkars are beginning to resemble the same labyrinthine, faceless entities, without spontaneous popular support—much like the system the Naxalites are purportedly fighting against.

RAHUL GAUR, GURGAON"

Friday, April 09, 2010

एक पत्र भगवान् के नाम - ३

पिछली किस्त से जारी.


भेंट वाला चक्कर आप की समझ में नहीं आया होगा - आप के वहाँ इंडियन एक्सप्रेस नहीं आता क्या? पिछले सालों से ऐसी ही एक भेंट का काफी चक्कर चला है.
खैर, मैं बताता हूँ.
आपके समय में न्याय मांगने वालों की भीड़ लगी रहती थी, आप भी परेशान रहते थे (उस समय आप कितने दुबले हो गए थे). अब ऐसा चक्कर ख़त्म.
भीड़ तो अब भी रहती है - नारे लगाती भीड़, चीखती भीड़, लेकिन आप पीछे के दरवाजे से भेंट चढ़ाव और हाथों-हाथ न्याय मिलता है (इस न्याय की विशेषता यह है कि यह हमेशा आप के हक में रहेगा - बशर्ते सामने वाली पार्टी ताक़तवर न हो).
पासपोर्ट बनवाने से  लेकर गैस का कनेक्शन लेने तक, बच्चों का स्कूलों में दाखिला करने से लेकर उनको नौकरी लगवाने तक सब इसी भेंट की माया है. "दाम में दम, काम में दम" वाली उक्ति यहाँ चरितार्थ होती है.
पत्र शायद लम्बा हो गया है, लेकिन इतना समय भी कभी कभी ही निकल पाता है. और फिर, आप सा सुनने वाला भी कहाँ मिलेगा!
आज घर बैठा हूँ, बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है. आशा है आपके वहाँ इस किस्म के खेल कूद नहीं होते होंगे. कर्फ्यू का भी एक अलग ही एक्सपेरिएंस है भगवन - पुलिस स्टेशन से पुलिस और छावनियों से फौज को उठा कर अशांति वाले इलाकों में भेज दिया जाता है कि जाओ जंग करो, यहाँ बैठे बैठे जंग मत खाओ. अगर बाहर किसी से नहीं लड़ सकते तो अन्दर ही लड़ के अपनी भड़ास निकालो.
तो कवायद सड़कों पर होती है, चौराहों पे होती है - आम आदमी को बाहर निकलने की इजाज़त नहीं होती, राशन नहीं मिलता, दवाइयां नहीं मिलती. लेकिन बंदूकों के साए में शांति स्थापित हो जाती है, फिर कर्फ्यू-ग्रस्त क्षेत्र से कहा जाता है कि यहाँ पूर्ण शांति है. यह अशांति भी हमारे राजनीतिज्ञ ही करवाते हैं - पुलिस, फ़ौज और प्रशासन को समय-समय पर टाईट करते रहने के लिए.
बाकी कुछ विशेष नहीं है - वैसा ही जैसा पिछले 45 सालों से चल रहा है - राशन की दुकानों पर वही लम्बी कतारें हैं; भूखा आदमी वैसे ही आश्वासन और खून के घूँट पी रहा है.
ज्यादा आबादी हमें करनी नहीं है, इस लिए 15 लाख से ज्यादा बच्चे 5 साल की उम्र से पहले भूख और बीमारी से मर रहे हैं.
पड़ोस वाले समाज सुधारक लाला जी का नौकर अभी भी रोज शाम को नियम से मार खाता है, फिर भी उनसे ही चिपटा रहता है.
टी.वी. पर वही मुस्कुराते चेहरे भारत माता के गाने गाते हैं, भारत को महान बताते हैं और स्टीकर पर चिपकी यह महानता ऑटो-रिक्शा पर टंगी घूमती है.
नन्हे, झुर्रियों भरे हाथ स्लेट - पेंसिल छोड़ कर कप-प्लेट धोते हैं.
रम्भा और मेनका के अनगिनत विकृत रूप आज भी नारी-सुधार के भाषणों तले दबते हैं.
बूढा किसान एक अंगूठे के जरिये अपनी किस्मत जमींदार के यहाँ गिरवी रखता है और लहलहाती फसल के सूखे डंठलों को बटोर कर बेटी की शादी करता है.
बाबू अपनी टूटी साइकिल पर "ब्लैक" की गैस का सिलिंडर लाता है.
जनता को आराम देने के लिए अभी भी काम रुकता है - हडतालें होती हैं, पहले गोरे सिपाहियों की लाठी खाते  थे, अब हमारे अपने जवानों की. आखिर, प्रभु, स्वदेशी में ही सबका भला है - अपने महात्मा जी कह गए हैं.
आप भी बंट गए है - आपको अजीब लगेगा लेकिन ऐसा हो गया ही. अपने लेवल पर आप सब भी अपने-२ चार्ज बाँट लीजियेगा.
(जारी)
 
पहली किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - १
दूसरी किस्त - एक पत्र भगवान् के नाम - २

Friday, April 02, 2010

एक पत्र भगवान के नाम - २

(पिछली किस्त से जारी)

भगवन, एक ख़ुशी की की बात यह है कि अपना मुन्नू पांचवी कक्षा में पास हो गया है. हेड-मास्टर साब हमारी ही दुकान पर पधारते हैं, पान खाने, और जब उनकी बिटिया के हाथ पीले हुए थे, उस समय हमने भी मुफ्त में हाथ बड़े लाल किये थे.
वैसे, मुन्नू खेलने में बड़ा माहिर है - कितनी बार तो मैं उसे नुक्कड़ से गिल्ली डंडा खेलते हुए उठा कर लाया हूँ.
भगवन, मैं सिरिअस्ली सोच रहा हूँ - मुन्नू को खेल की लाइन पकडवा दें तो कैसा रहेगा? बड़ा होगा तो मौज करेगा - बाहर देशों में जाएगा, खूब पैसा कमाएगा, हर जगह हार जायेगा - और घर पर खूब गालियाँ खायेगा.
गालियों की आदत तो मैं डाल रहा हूँ - कान पक रहे हैं उसके.
और नयी खेल नीति की बात बहुत धड़ल्ले से करता है - मोहल्ले में उल्टा सीधा सुनता रहता है न, इसलिए. बार्सीलोना में जो कबड्डी प्रतियोगिता हुई थी, बड़े चाव से टी. वी. पर देखी उसने.
बार्सीलोना आप गए नहीं होंगे कभी - वैसे अब कभी जाओ, तो यह मत कह देना कि भारतीय हूँ - लोग बाग़ उलटे सीधे मज़ाक करते हैं. अब आप पूछेंगे कि मज़ाक क्यूँ? कहते हैं हम इतने लोग खेलने कूदने गए और कोई पदक वगैरह नहीं लाये. उन्हें अब क्या समझाएं कि अरे भैया, जितना सोना देश में हैं, उसे ही हम गिरवी रख रहे हैं, अब और ला कर क्या करेंगे? और इज्जत का क्या है - वह तो आनी जानी है - बाहर घूम आते हैं, किताबों के कवर पर छप जाते हैं, यह क्या कम है? मुन्नू ने तो ऐसी बातें सुन सुन कर भारतीय टीम का एक गाना बना लिया था - न मांगू सोना चांदी, न मांगू हीरा मोती....
और भगवन, अब राजनीतिज्ञों की चौपाल - संसद - में यह बातें चल रही हैं कि हम क्यूँ हारे? नतीजा निकला - नीति ख़राब है. अरे, नीति किस चीज में अच्छी है तुम्हारी, जो तुम खेल नीति को दोष दे रहे हो! आपके जमाने के जो विदुर जी थे, उन तक की नीति तो कैसेटों में बंद है, जनता चीर-हरण देख लेती है, और नीति की बात आते ही कह देती है - लाइट चली गयी.
और बार्सीलोना में कुछ लोग अपने स्टेटस से अच्छा खेल गए तो इसका हमारे पास क्या इलाज है? एक देश है भगवन, टोटल हमारे मोहल्ले जितना, और इतने सारे पदक ले गया! अरे छोटा मुंह बड़ी बात - जितना सम्भाला जाए, ले जाओ, बाकी छोड़ दो, मौका पड़ा तो हम बटोर लायेंगे. नहीं तो, किसी को कुछ भेंट दे देंगे, काम हो जायेगा. हमारे यहाँ तो इस "भेंट" से कई काम निकल जाते हैं.
 
पहली किस्त - एक पत्र भगवान के नाम - 1
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